वीर खुदीराम बोस

 

■प्रस्तावना-


"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है?"


इसी गीत की भावना को चरितार्थ करते हुए हमारे देश भारतवर्ष की आजादी के लिए लगभग 19 साल की उम्र में हंसते हुए फांसी पर चढ़ जाने वाले युवा क्रांतिकारी खुदीराम बोस थे। जी हां! बच्चों ! 11 अगस्त 1908 ईसवी को भारतीय स्वाधीनता के लिए उन को अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी।

यह वह उम्र होती है जब युवा युवतियाँ टीनएज में होते हैं ।

विचार उतने परिपक्व नहीं होते हैं।पढ़ने-लिखने,खेलने-कूदने और मौज-मस्ती का समय होता है।लेकिन भारत देश के इस वीर सपूत ने मौज-मस्ती छोड़कर मां भारती को अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए अपने सर को गिरवी रखने का संकल्प लिया।


■उनके बलिदान को कमतर आँकना हमारी मूर्खता है-

आप उनके बलिदान को "भावना में बहकर जान कुर्बान कर दिया" यह कहकर उनका अपमान नहीं सकते।उन्होंने जो किया पूरे होश-हवास में किया।आप यह कहकर भी उनका बिल्कुल अपमान नहीं कर सकते कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बचाने के लिए उनकी भावना को उकसाकर बलिदान कराया गया।क्योंकि पूरे देश में उस समय स्वदेशी आंदोलन की लहर चल रही थी।हर जगह देशभक्ति की भावनाएँ प्रबल थीं।




■इतिहास क्यों पढ़ें?

कुछ आलोचक ऐसे होते हैं जो कहेंगे कि इतिहास विषय को क्यों पढ़ना चाहिए ? पुरानी घटनाओं में लड़ाइयों को हमें याद क्यों करना चाहिए ? यह तो हमें लड़ने को प्रेरित करती है।लेकिन इतिहास हमें इसलिए पढ़ना चाहिए क्योंकि बहुत सारी वर्तमान की चुनौतियों या समस्याओं की जड़ में इतिहास छुपा होता है,जिनके सही विश्लेषण के लिए इतिहास जानना बहुत जरूरी होता है ।इतिहास पढ़ने से,इतिहास जानने से हमें गौरव का अनुभव होता है । इतिहास से हमें सीख मिलती है। लोगों में देशभक्ति की भावना भरने के लिए इतिहास को जानना-सीखना बहुत जरूरी है। कई बार देश या समाज या संस्कृतियां अपना गौरवशाली अतीत भूलकर अवसाद ग्रस्त हो जाता है,खुद को कमजोर समझने लगता है। लेकिन इतिहास कोई अतीत या बीती हुई कहानी नहीं होती बल्कि वह वर्तमान का बिंब(वस्तु,जिनसे छाया बनती है) होते हैं । हम अभी जो हैं उसमें सिर्फ वर्तमान का ही हाथ नहीं, बल्कि अतीत का भी हाथ होता है।


■प्रारम्भिक जीवन-

खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुवैनी नाम के गांव में हुआ था । उनके पिताजी का नाम त्रिलोक नाथ बोस और मां का नाम लक्ष्मीप्रिया था। देश में आजादी को लाने की लहर चल रही थी। स्वदेशी आंदोलन चल रहा था। अपनी पढ़ाई नौवीं कक्षा में ही छोड़कर वह भी स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े। स्कूल छोड़ने के बाद रिवॉल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदे मातरम के पम्पलेट बांटे। 1905 में बंग-भंग(बंगाल-विभाजन) के विरोध में चलाए गये आंदोलन में भी बढ़ चढ़कर भाग लिया। जब गवर्नर कर्जन ने 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया और वह भी मजहब के आधार पर तो इसका पूरे देश में काफी विरोध हुआ और इस विरोध के लिए सड़कों पर उतरे अनेक भारतीयों को कोलकाता के मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड ने क्रूर दंड दिया। क्रांतिकारियों को भी उसने काफी कष्ट दिया और इसके बदले किंग्स फोर्ड को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सेशन जज यानी सत्र न्यायाधीश के पद पर बैठाया गया । मिदनापुर में "युगांतर" नाम के क्रांतिकारियों की एक गुप्त संस्था थी। इसी के माध्यम से खुदीराम बोस कार्य किया करते थे। युगांतर समिति की एक गुप्त बैठक में ही किंग्सफोर्ड को मारने का निश्चय हुआ था। इस कार्य के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी को चुना गया। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने रात के अंधेरे में किंग्स फोर्ड की आती गाड़ी पर बम फेंका। इसकी आवाज पूरे हिंदुस्तान में,पूरे इंग्लैंड में और पूरे यूरोप में भी सुनी गयी।इस घटना ने तहलका मचा दिया था । हालांकि खुदीराम ने किंग्स फोर्ड की गाड़ी समझकर बम फेंका था लेकिन वह अत्याचारी बच गया और निर्दोष कैनेडियन लेडी मारी गयीं ।इस घटना को अंजाम देकर दोनों वहां से रफूचक्कर हो गए,लेकिन अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी और वैनी नाम के रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया गया । पुलिस से खुद को घिरा देखकर प्रफुल्ल कुमार चाकी ने खुद को गोली मार ली और शहादत दे दी, लेकिन खुदीराम पकड़े गये।कहा जाता है कि किंग्सफोर्ड ने घबराकर नौकरी छोड़ दी। अनेक क्रांतिकारियों को उसने कष्ट दिया था उनके भय से उसकी जल्द ही मौत हो गयी। 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में उन्हें फांसी दे दी गई और उन्होंने फांसी का चूमकर आलिंगन किया था । 

तो आज के दिन हम ऐसे वीर सपूत को याद करते हुए उन्हें सलाम करते हैं। उन्हें प्रणाम करते हैं । लेकिन उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी,जब हमारे बच्चों में भी अपने देश के प्रति एक समर्पण का भाव हो। इसलिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य को देखते हुए सभी बच्चों के लिए क्रांतिकारियों, देशभक्तों के जीवन का पाठ पढ़ाया-सिखाया जाना चाहिए।तो ऐसे थे हमारे वीर खुदीराम बोस और ऐसा है हमारा देश।इतनी कम उम्र में देश के लिए अपने सर सौदा करने वाले जहाँ पैदा होते हों,उस देश को आखिर कितने दिन गुलाम रखा जा सकता था ?


"एक बार बिदाई दाओ माँ, घुरे आसी।

हांसी-हांसी पोरबो फाँसी,

देखबे भारोतबासी।।माँ गो..

एक बार बिदाई दाओ माँ, घुरे आसी।"


इसी गीत को गाते हुए हमारे वीर खुदीराम बोस फाँसी के फंदे को चूमकर हँसते-हँसते शहीद हो गये।











जय हिंद ! जय भारत ! इंकलाब जिंदाबाद ! वंदे मातरम !🙏💐🇮🇳


-आशुतोष कुमार

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